जब श्राद्ध करने से मिली प्रेत आत्मा को मुक्ति…
लखनऊ उत्तर प्रदेश के गोरखपुर गीता प्रेस को आज कौन नहीं जानता । धर्मशास्त्रों का, ग्रंथों का सबसे बडा प्रकाशन आज गीताप्रेस से ही होता है । हिन्दू धर्म ग्रंथों, वेदों, पुराणों व संतों के सत्संग व ज्ञान को समाज तक पहुँचाने का पुनीत कार्य वर्षों से गीताप्रेस के द्वारा किया जाता रहा है । गीताप्रेस की स्थापना वर्ष 1923 में हुई थी । गीता-सार को जन मानस तक पहुंचाने वाले इस संस्थान के कई दिलचस्प किस्से हैं, उन्हीं में से एक घटना है हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के जीवन की सत्य घटना । कहते हैं इस घटना ने भाईजी की ईश्वर के प्रति श्रद्धा औऱ आध्यात्मिकता को बहुत बढाया था ।
इस घटना के बारे में गीता प्रेस से जुड़े लोग जानते हैं और ‘भाई जी’ के करीबी लोग भी इस घटना को भली प्रकार जानते और बताते हैं । ‘भाई जी’ पहले बिजनेस के लिए मुंबई में रहा करते थे । ये बात उन दिनों की है – भाई जी भगवान की पूजा अर्चना, जप-ध्यान बडे ही भाव से किया करते थे । वे शाम को काम से जब फ्री होते तो मरीन ड्राइव स्थित चौपाटी पे बैठकर भगवन्नाम जप किया करते । जहाँ भाईजी बैठकर जप करते थे, वहां उनके पास एक व्यक्ति अक्सर आकर उनके बाजू में खड़ा हो जाया करता था ।
रोज अपने पास उस व्यक्ति को खडा देखकर जब ‘भाई जी’ ने उससे बातचीत की भाई जी ने मुस्कुराकर अपना परिचय दिया और उससे विषय में पूछा । उस व्यक्ति ने ‘भाई जी’ को कहा, यदि आप डरेंगे नहीं तो मैं आपको अपने बारे में बताऊँगा । ‘भाई जी’ ने कहा परीचय जानने में डरने वाली क्या बात है । आप निःसंकोच बताईये । वह व्यक्ति हँसते हुए बोला भाईजी मैं एक प्रेत आत्मा हूँ । अकाल मृत्यु के कारण मैं यहाँ काफि समय से भटक रहा हूँ । आपको देख मुझे लगा आप एक धार्मिक व्यक्ति हैं और ईश्वर की भक्ति करते हैं । मैं किसी से बात भी नहीं कर पाता था मेरी बोलने की शक्ति भी चली गयी थी । आपके पुण्य प्रभाव से मैं बोल पा रहा हूँ । मुझे विश्वास है की आप मुझे प्रेतयोनि से मुक्ति दिला सकते हैं ।
उस आत्मा ने कहा कि मैं पारसी परिवार में जन्मा था । कुछ समय पुर्व किसी कारण वश मेरी अकाल मृत्यु हो गयी । अकाल मृत्यु के कारण मेरे धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करने पर भी मेरी मुक्ति न हो पायी और मैं प्रेतयोनि में भटक रहा हूँ । मैंने सुना है कि हिंदू धर्म में श्राद्ध-पिंडदान आदि संस्कार होते हैं, जिनसे व्यक्ति मरने के बाद प्रेत योनि से मुक्त हो जाता है । उस आत्मा ने ‘भाई जी’ से उसका श्राद्ध एवं पिण्डदान करने को कहा ।
‘भाई जी’ ने उस आत्मा के बताये अनुसार उसके परिवार से मुलाकात की । इसके बाद उस आदमी के बारे में जानने के बाद भाईजी ने अपने सहयोगी हरिराम शर्मा के साथ उसका श्राद्ध पिंडदान, तर्पण आदि करवाया । श्राद्ध-पिंडदान-तर्पण करने के बाद एक दिन फिर उसी चौपाटी पर वह व्यक्ति अंतिम बार बडी ही प्रसन्नता के साथ दिव्य रूप में ‘भाई जी’ को दिखा और उसने भाई जी का हाथ जोडकर बडे भाव से आभार प्रकट किया । वह बोला ‘भाई जी’ आपके श्राद्ध एवं तर्पण, पिण्डदान आदि से मुझे इस प्रेतयोनी से मुक्ति मिल गयी है । अब मैं आगे की यात्रा के लिए जा रहा हूँ आपका बहुत बहुत धन्यवाद ! ऐसा कहकर वह प्रेतात्मा अंतर्ध्यान हो गया । उसके बाद वह आत्मा ‘भाई जी’ को फिर कभी नजर नहीं आई ।
ये घटना ‘भाईजी’ श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के जीवन की घटित घटना है । इसे अक्सर वे अपने नजदीकी लोगों को बताया करते थे । इस घटना से ये साफ हो जाता है कि इस शरीर के मरने के पश्चात भी आत्मा को जो आवश्यकता रहती है वह श्राद्ध द्वारा उन्हें अर्पित की जा सकती है । कैसी सुन्दर व्यवस्था है सनातन हिन्दू धर्म में । अतः वर्ष में एक बार श्राद्धपक्ष में श्रद्धापूर्वक अपने पितरों का श्राद्ध करना चाहिए ।