श्राद्ध की महिमा | श्राद्ध कैसे मनाते है? श्राद्ध क्यों करते हैं?
सनातन धर्म की ये महानता है कि मनुष्य जीवन में कृतज्ञता की भावना हो । जो कि हिन्दू बच्चों में अपने माता-पिता के प्रति बचपन से ही देखी जा सकती है । सनातन धर्म का व्यक्ति अपने माता-पिता के जीवन काल में उनका आदर-सत्कार तो करता ही है, परंतु उनके मृत्यु के पश्चात भी उनके उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूरा करने की कोशिश करता है । उनके लिए श्राद्ध करके अपनी श्रद्धा, भावना, प्रेम व कृत्ज्ञता अर्पण करता है । ‘श्राद्ध संस्कार’ इसी भावना से प्रेरित हैं ।
मृत्यु के बाद जीव को उनके कर्मानुसार स्वर्ग अथवा नरक में जगह मिलती है । पाप या पुण्य के फल भोगकर वह वापिस पृथ्वी पर जन्म लेता है । अपने पूर्वजों के लिए किये गये श्राद्ध कर्म की बडी भारी महिमा पुराणों में कही गयी है । पितरों के लिए एक विशिष्ट लोक होता है जिसे पितृलोक कहा जाता है । यदि आपके पितृगण पितृलोक में नहीं हैं बल्कि पृथ्वी पर मनुष्य, या किसी और योनी में हैं, या किसी और भी लोक-लोकान्तर में हों । तो भी यदि आप उनके लिए श्राद्ध करते हैं, तो श्राद्ध के प्रभाव से उस दिन वे जहाँ भी होंगे उन्हें उनके अनुकुल लाभ होगा । शास्त्रों के अनुसार पितृगणों के तृप्त होने पर आपको आपके इच्छित फलों की प्राप्ति होती है, और शौर्यवान, वीर, भक्त, संस्कारी एवं साहसी संतानों की प्राप्ति होती है ।
आज के युग में टैलीफोन, इंटरनेट आदि यंत्र कई किलोमीटर के फासले को दूर कर देते हैं, यह प्रत्यक्ष है । इन यंत्रों से भी शास्त्रीय मंत्रों का प्रभाव कई गुना ज्यादा होता है । भगवान श्रीरामचन्द्रजी, भगवान श्रीकृष्णजी भी श्राद्ध किया करते थे । पैठण के महान संत श्री एकनाथ जी महाराज के पितरों को बुलाकर श्राद्ध कराने की कथा जग विदित है ।
जिन माता-पिता ने हमें पाल-पोसकर इतना लायक बनाया, पढ़ाया-लिखाया, हममें भक्ति, ज्ञान एवं सनातन धर्म के संस्कारों का सिंचन किया उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण करके, उनका श्राद्ध एवं तर्पण करके उन्हें प्रसन्न करना चाहिए । ऐसा करने का श्रेष्ठ पक्ष ही श्राद्धपक्ष कहलाता है । आश्विनमास के कृष्ण पक्ष में की गयी श्राद्ध-विधि, गया क्षेत्र में की गयी श्राद्ध विधी के समान मानी जाती है । इस विधि में मृतात्मा की पूजा एवं उनकी तृप्ति का उद्देश्य सम्मलित होता है ।
शास्त्रों के अनुसार पृथ्वीलोक में रहने वाले प्रत्येक आदमी पर कुछ ऋण माने गये हैं । जैसे देवऋण, पितृऋण एवं ऋषिऋण । श्राद्ध करने से मानव पितृऋण से मुक्त हो जाता है । यज्ञ करके देवताओं को भाग देने पर देवऋण से मुक्त हो जाता है । ऋषि-मुनि-संतों के ज्ञान व उपदेशों को अपने जीवन में लाने से, आदरसहित आचरण करने से आदमी ऋषिऋण से मुक्त हो जाता है ।
पुराणों के अनुसार कृष्ण पक्ष की अमावस (सर्वपितृ अमावस) के दिन सूर्य एवं चन्द्र की युति होती है । सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है । इस दिन हमारे पितर यमलोक से सूक्ष्म रूप से धऱती पर अपने वंशजों के पास आते हैं । अतः उस दिन उनके लिए श्राद्ध करने से वे तृप्त होते हैं । एसा कहा गया है कि हमारी पृथ्वी का एक वर्ष पितृलोक का एक दिवस के समान होता है । पितृगण दिवस में एक बार भोजन गृहण करते हैं । वो समय होता है श्राद्ध पक्ष का । अतः इस समय श्राद्ध करके पितरों को तृप्त करना चाहिए ।
श्राद्ध के समय ध्यान रखने योग्य बातें –
जिस दिन श्राद्ध करना हो उस दिन किसी विशिष्ट व्यक्ति को न बुलायें, नहीं तो उनकी आवभगत में समय चला जायेगा और पितरों का अनादर होगा । इससे पितर नाराज भी हो सकते हैं । जिस दिन श्राद्ध करना हो उस दिन उत्साहपूर्वक भजन, कीर्तन, जप, ध्यान आदि करके हृदय को पवित्र करना चाहिए । स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छता पूर्वक भोजन बनाना चाहिए । भोजन में जिनका आप श्राद्ध कर रहे हैं उनकी प्रिय वस्तु बनानी चाहिए । घर में धुप दीप आदि अवश्य करना चाहिए । एक लोटे में जल लेकर उसमें काले तिल डालकर उसमें देखते हुए श्रीमद्भागवत गीता के सातवें अध्याय का माहात्म्य सहित पाठ करना चाहिए । उसके बाद उस जल को पितरों की प्रसन्नता के लिए प्रातःकाल ही भगवान सूर्य को पितरों के निमित्त अर्पण करना चाहिए । इस पाठ का फल पितरों को समर्पित करना चाहिए ।
श्राद्ध के आरम्भ और अंत में तीन बार निम्न मंत्र का जाप अवश्य करना चाहिए । इससे देवगणों व पितृगणों की प्रसन्नता प्राप्त होती है । मंत्र है :
देवताभ्यः पितृभ्यश्च, महायोगिभ्य एव च l
नमः स्वाहायै स्वधायै, नित्यमेव भवन्त्युत ll
अर्थ – समस्त देवताओं, पितरों, महायोगियों, स्वधा एवं स्वाहा सबको हम नमस्कार करते हैं l ये सब शाश्वत फल प्रदान करने वाले हैं l
श्राद्धकर्म में एक विशेष मंत्र उच्चारण करने से, पितरों को संतुष्टि होती है और संतुष्ट पितर आपके कुल खानदान को आशीर्वाद देते हैं । मंत्र है : ‘‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा ।’’
श्राद्ध का प्रथम अधिकार पुत्र को होता है । जिसका कोई पुत्र न हो, उसका श्राद्ध उसकी बेटी के पुत्र कर सकते हैं l कोई भी न हो तो पत्नी ही अपने पति का बिना मंत्रोच्चारण के साथ श्राद्ध कर सकती है l पिण्डदान, तर्पण व श्राद्धकर्म ब्राह्मणों के साथ बैठकर करना चाहिए । आजकल सामुहिक श्राद्ध भी होते हैं । कई संतों के आश्रमों में (जैसे संत आशारामजी बापू के आश्रम में) भी इसकी व्यवस्था की जाती है । श्रेष्ठ ब्राह्मण श्राद्ध की सम्पूर्ण विधि के साथ वहाँ श्राद्ध करवाते हैं । श्राद्ध की सभी सामग्री भी आपको वहाँ उपलब्ध हो जाती है । श्रद्धा पूर्वक एक, तीन, पाँच या सात ब्राह्मणों को बुलाकर उनमें अपने पितरों की भावना करके उन्हें प्रीतीपूर्वक भोजन करवाना चाहिए । सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा देकर प्रसन्न करना चाहिए । उनके आशिष लेने चाहिए । अपने पितृगणों का नाम लेकर उनके निमित्त दान करना चाहिए ।
श्राद्ध कर्म में तुलसी, कुश, दुर्वा, कपूर, काले तिल, धूप, दीप, रोली, मोली, अबीर, गुलाल, चंदन आदि पवित्र वस्तुओं का उपयोग किया जाता है । पिण्डदान, तर्पण, पूजन, अर्चन, प्रार्थना आदि सभी विधि श्राद्ध में की जाती हैं । ये सभी आप किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण से, या फिर जहाँ सामुहिक श्राद्ध होता हो, वहाँ जाकर भी कर सकते हैं ।
एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए । रजस्वला स्त्री को इन कार्यों से दूर रहना चाहिए । आपके घर में यदि जननाशौच या मरणाशौच चल रहा हो तो श्राद्ध कर्म न करें ।
सूक्ष्म जगत के लोग हमारी श्रद्धा से दी गयी वस्तु से तृप्त होते हैं । बदले में वे भी हमें मदद, प्रेरणा, प्रकाश, आनंद और शाँति देते हैं । हमें अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्त होने के लिए और उनके शुभ आशीष प्राप्त करने के लिए श्राद्ध करना चाहिए । विधि सहित श्राद्ध करने से उत्तम संतान, धन-धान्य, सुख समृद्धि की प्राप्ति व कुल की वृद्धि होती है । अतः वर्ष में एक बार श्राद्धकर्म अवश्य करना चाहिए । पुराणों व धर्मश्रास्त्रों के अनुसार ये एक बहुत ही पुनीत व पुण्यदायी कार्य है । इससे आपके बच्चों में भी अच्छे संस्कार व अपने पूर्वजों के लिए सम्मान की भावना जागृत होती है ।